मिट्ठू मदरसा : रविन्द्रनाथ टैगोर के कहिनी के छत्तीसगढ़ी अनुवाद

एक ठिक मिट्ठू राहय। पटभोकवा, गावय मं बने राहय। फेर बेद नई पढ़य। डांहकय, कूदय, उड़ियाय, फेर कायदा-कानहून का होथे, नई जानय। राजा कथे ‘अइसने मिट्ठू का काम के’ कोनो फायदा तो नी हे, घाटा जरूर हे। जंगल के जमें फर मन ला थोथम डारथे। ताहन राजा-मंडी म फर फरहरी के तंगी हो जाथे।
मंतरी ला बलाके किहिस- ये मिट्ठू ला गियान बिदिया सिखोवव- ‘राजा के भांचा ला सिखोय-पढ़ोय के ठेका देय गीस। गुनी धियानी मन के बइसका होइस। बिचार करिन मिट्ठू म अबुजहापना काके सेती हावे। बनेच गंसियाहा भंजाय गीस। सुन्ता बनाईन मिट्ठू तो बन बदौर के गुड़ा म रहिथे। अइसने ठउर म बिदिया नई आवे। तेकर सेती जरूरत हे सुग्घर अकन पिंजरा बनाय जाय।’ राजपुरोहित मन ला खमखम्मा बिरादरी मिलिस। ओमन एक मन आगर अपन घर गीन।
सोनार बलाय गीस, वोहा सोन के पिंजरा बनाय बर भिड़गे। अइसे बिचित्र पिंजा, जेला देखे बर दुनिया भर ले मनखे आईन। कोनो काहय- पढ़ई तो नंदा गे रे। कोनो काहय पढ़ई नहीं होय ते का होगे। पिंजरा तो बनिस। कतेक भागमानी हे मिट्ठू। सोनार ल थैली भर-भर के इनाम मिलिस। ओहर तुरते अपन घर चल दीस। गुरूजी मिट्ठू पढ़ाय बर बइठिस। नसवार लेके कथे येकर पढ़ई थोर-थार किताब म नी हो सके। तेला राजा के भांचा सुनिस। तुरते गोहड़ी अकन लिखइया बलाय गीस। सरी अकन किताब के नकल कराय गीस। नकल के नकल डोंगरी कस कुड़हा रचागे। जेने देखे, कहाय- ‘वास रे, अतेक बिदिया ला राखे बर जगा नई मिलही।’ नकल उतरइया मन ला गाड़ा-गाड़ा बिदागरी मिलिस। ऊंकर तंगी के दिन बहुरगे। वो सोनहा पिंजरा के देखरेख म राजा के भांचा रातदिन एकमई करके भीड़े राहय। जउने देखे, तउने काहय- ‘बने तरक्की होवत हे।’
अइसे ढंग ले मिट्ठू ला बुधमान बनाय के उदीम म जतेक छोटे-बड़े लगे रिहिन ओमन, ऊंकर लागमानी मन, ओखी-खोखी म घर भरे धर लीन। ये दुनिया म कतकोन कमी हावे, फेर चरियाहा के कमी नइये। एक खोजबे ते हजार मिलथे। ओमन किहिन- पिंजरा के तो घात सवांगा होवत हे। फेर मिट्ठू के आरो लेवइया कोनो नइये। बात राजा के कान म हबरिस। वो हा अपन भांचा ल बलाके कथे- कइसे हो भांचा, यहा काय सुनावत हे? भांचा किहिस- ‘महाराज! कहूं फरी-फरा बात सुने बर हे ते सोनार मन ला, पुरोहित मन ला, नकलची अऊ मरम्मत करइया, जंचइया सबे ल बला लेवव, चरियाहा मन ला कमई के बांटा नई मिले न तेकरे सेती अइसने गोठियात रइथे।’ सुनके राजा ला पूरा अकल आ गीस, तुरते भांचा के टोटा म सोना के चैन पहिरा दिस अउ चल दिस।
राजा के मन होईस मिट्ठू मदरसा के हालचाल देखे जाय। एक दिन ओहर सबे सिपाही, दरोगा, संगी-मितान अउ दरबारी मंतरी संग लेके पढ़ई अखाड़ा (मदरसा) पहुंच गे। ऊंकर हबरतेच मुहाटी मेर संख, घड़ियाल, ढोल, तासे, खुदरक, नगाड़ा, तुरही, भेरी, दमामे, फांसे, बांसुरिया, झाल, करताल, मृदंग, जगझम्प अउ कतकोन बाजा रूंजी बाजे धर लीस। बाह्मन मन टोंटा चीरत लिटी झटकारत मंतर जाप किकिया किकिया के करे धर लीन। मिसतिरी, कमइया, बनिहार, सोना, बढ़ई, नकलची, देखरेख करइया मन संग कका-बड़ा, ममा, फूफा, भाई, भतीजा, जमे लाग मानी जय जयकार करे धर लीन। भांचा कथे राजा ला ‘देखत हस ममा महाराज?’ राजा किहिस- ‘बास रे बोली भाखा तो कमसल नइहे।’ भांचा किहिस- ‘बोलिच भाखा काबर महाराज, इकंर भितरौंदी अरथ घलो कमसल नइहे।’
राजा मगन होके लहुटे धरिस। डेहरी नाहक के हाथी म चढ़त रिहिस। तसने म झुंझकुर म लुकाय चरियाहा किहिस- महाराज तैं तो मिट्ठू ला देखबे नी करे। सुनके राजा ला चेत आईस- किहिस अरे हां, मय तो भुलावत रेहेंव लहुट के गुरूजी ला कथे- ‘मोला देखे बर हे, मिट्ठू ला तैं पड़हाथस कइसे?’ राजा ला पड़हाय के तरीका देखाय गीस राजा गद्गद होगीस। पड़हाय के जोखा अतेक जादा राहय, तेमा मिट्ठू दिखबे नी करत राहय। राजा सोचिस अतेक उदीम करे गेय हे, अब मिट्ठू ला देख के काय करहूं? ओला पक्का समझ आ गीस। मिट्ठू मदरसा तियार म कोनो कसर नइहे। पिंजरा म दाना-पानी के जगा फकत पड़हे गुने के जिनिस-किताबेच किताब राहय। पन्ना चीर-चीर के कलम के नोंक म लपेट के मिट्ठू के मुंहूं म गांजे जावय। मुहूं ठसाठस भर गेय राहय। देखइया मन के रूआं ठढ़िया जावय। राजा फेर हाथी म चढ़त कान अंइठुल दरोगा ला किहिस देख तो चरियाहा के कान ल बने अइंठ।
मिट्ठू दिन-दिन सुग्घर ढंग ले अदमरा होवत गीस। जंचइया मन समझिन तरक्की बने सुलगढ़न होवत हे। तभो ले चिरई जात के ऐब राहय। बिहंचे अंजोर कोती टुकुर-टुकुर देखय अउ अलकरहा डेना फड़फड़ावय। कभू-कभू तो अइसन देखे जावय, वोहर अपन अजरहा चोंच ले पिंजरा के छड़ ला ठोंनकत राहय। थानादार गरजिस- ‘यहां का ऊदबिरीस होवत हे? लघियांत आगी, हथौरी अउ धुकनी लेके लोहार आईस। राहपट ठोंक-पीट चलिस ते का पूछबे। बरकस संकरी तियार होगे। मिट्ठू के डेना काटे गीस। राजा के लागमानी मन थोथना ओरमा के किहिन- ‘ये राज के चिरई, अबूजेच नइहें। निमक हिराम घला हे।’ ताहने तो पंडित मन एक हात म कलम अउ दूसर म बरछी ले लेके अइसन बिधुन मचईन जेला सिखौना कथें। लोहार के दुकान संवर गे लोहारिन के देहे भर सोन के गाहना सजगे। थानादार के चतुरई देख के राजा हर कोठी इनाम दीस।
मिट्ठू मर गीस। कब मरिस कोनो नी जानिन। फेर चरियाहा मन बगरादीन- ‘मिट्ठू मर गीस।’ राजा अपन भांचा ला बला के पूछथें- ‘यहां काय सुनत हौं जी? भांचा किहिस महाराज मिट्ठू के पढ़ई पूरा होगे।’ राजा पूछिस-‘का अब घला उचक थे फुदरथे?’ भांचा कथे- ‘कहां पाबे राम कदे।’ अब उड़ियाथे घला? राजा पूछिस त भांचा किहिस- ‘अहं थोरको नीही।’ राजा- ‘अब घला गाथे?’ भांचा- नीहीं भई राजा- दाना नई मिले ताहन चिचियाथे का? भांचा- ‘ऊंहूं एक घावं मिट्ठू ला लान तो भला देखहूं राजा किहिस।’ ताहन सिपाही, दफेदार, घुड़सवार, मन संग मिट्ठू लाने गीस। राजा हर मिट्ठू ल चिमकिस। मिट्ठू हुकिस न भूंकिस। ओकर पेट के कागत मन सुक्खा पाना, कस खड़खड़ाईन जरूर।
बाहिर डाहर नवा बसंत के भण्डारी हावा म नावा पत्ता मन अपन सुररत सांस ले संवरत जंगल के चारो मुड़ा ला बियाकुल कर दीस।
किसान दीवान
झलप चौक, बागबाहरा
महासमुन्द

आरंभ म पढ़व :-
सफर में हमसफर के पदचाप की आवाज साथ है
साथियों मिलते हैं एक लम्‍बे ब्रेक के बाद : इस बीच संपर्क का साधन जीमेल होगा

Related posts

One Thought to “मिट्ठू मदरसा : रविन्द्रनाथ टैगोर के कहिनी के छत्तीसगढ़ी अनुवाद”

  1. गजब निक लागिस ए कहिनी नंदावत भाखा मन के चुन चुन के माला पिरोय हे। लिखइया किसान अउ परोसईया सियान ल गाड़ा गाड़ा बधई ।

Comments are closed.